धर्म संस्‍कृति

प्रार्थना की शक्ति

मनुष्य कितना दीन, हीन अल्प शक्ति वाला, कमजोर प्राणी है, यह प्रतिदिन के उसके जीवन से पता चलता है। उसे पग-पग पर परिस्थितियों के आश्रित होना पड़ता है। कितने ही समय तो ऐसे आते हैं, जब औरों से सहयोग न मिले तो उसकी मृत्यु तक हो सकती है। इस तरह विचार करने से तो मनुष्य की लघुता का ही आभास होता है, किन्तु मनुष्य के पास एक ऐसी भी शक्ति है, जिसके सहारे वह लोक-परलोक की अनंत सिध्दियों तथा सामर्थ्यों का स्वामी बनता है।

अविचल श्रध्दा
यह है प्रार्थना की शक्ति, परमात्मा के प्रति अविचल श्रध्दा और अटूट विश्वास की शक्ति। मनुष्य प्रार्थना से अपने को बदलता है, शक्ति प्राप्त करता है और अपने भाग्य में परिवर्तन कर लेता है। विश्वासपूर्वक की गयी प्रार्थना पर परमात्मा दौड़े चले आते हैं। सचमुच प्रार्थना में बड़ा बल है, अलौकिक शक्ति और अनंत सामर्थ्य है।

प्रार्थना विश्वास की प्रतिध्वनि है। रथ के पहियों में जितना अधिक भार होता है, उतना ही गहरा निशान वे धरती में बना देते हैं। प्रार्थना की रेखाएं लक्ष्य तक दौड़ी जाती हैं और मनोवांछित सफलता खींच लाती है। विश्वास जितना उत्कट होगा परिणाम भी उतने ही प्रभावशाली होंगे।
प्रार्थना आत्मा की आध्यात्मिक भूख है। शरीर की भूख अन्न से मिटती है, इससे शरीर को शक्ति मिलती है। उसी तरह आत्मा की आकुलता को मिटाने और उसमें बल भरने की सत साधना परमात्मा की ध्यान आराधना ही है। इससे अपनी आत्मा में परमात्मा का सूक्ष्म दिव्यत्व झलकने लगता है और अपूर्व शक्ति का सदुपयोग आत्मबल संपन्न व्यक्ति कर सकते हैं। निष्ठापूर्वक की गई प्रार्थना कभी असफल नहीं हो सकती।

आत्मा शुध्दि का आठान भी प्रार्थना ही है। इससे मनुष्य के अंतःकरण में देवत्व का विकास होता है, विनम्रता आती है और सदुगुणों के प्रकाश में व्याकुल आत्मा का भय दूर होकर साहस बढ़ने लगता है। ऐसा महसूस होता है, जैसे कोई असाधारण शक्ति सदैव हमारे साथ रहती है। हम जब उससे अपनी रक्षा का याचना, दुःखों से परित्राण और अभावों की पूर्ति के लिये अपनी विनय प्रकट करते हैं तो सद्य प्रभाव दिखलाई देता है और आत्म संतोष का भाव पैदा होता है। असंतोष और दुःख का भाव जीव को तब तक परेशान करता है, जब तक वह क्षुद्र और संकीर्णता से ग्रस्त रहता है। मतभेदों की नीति ही संपूर्ण अनर्थों की जड़ है। प्रार्थना इन परेशानियों से बचने की रामबाण औषधि है। भगवान की प्रार्थना से सारे भेदों को भूल जाने का अभ्यास हो जाता है। सृष्टि के सारे जीवों के प्रति जब ममता आती है तो इससे पाप की भावना का लोप होता है। जब अपनी असमर्थता समझ लेते हैं और अपने जीवन के अधिकार परमात्मा को सौंप देते हैं तो यही समर्पण का भाव प्रार्थना बन जाता है। दर्पणों का चिंतन और परमात्मा के उपकारों को स्मरण रखना ही मनुष्य की सच्ची प्रार्थना है। महात्मा गांधी कहा करते थे-मैं कोई काम बिना प्रार्थना के नहीं करता। मेरी आत्म के लिये प्रार्थना उतनी ही अनिवार्य है, जितना शरीर के लिये भोजन।

मनुष्य जीवन में अच्छे बुरे दोनों तरह की वृत्तियां रहती हैं, आत्मा के गहन अंतराल में तो सत्-तत्व पाया जाता है। इस शुभ, शिव और परमतत्व से एकाकार प्रार्थना से होता है, जिससे आसुरी वृत्तियों का लोप और दैवीय गुणों का प्रादुर्भाव होता है। प्रार्थना से ही अंतरात्मा में प्रवेश मिलता है और बुध्दि की सूक्ष्म ग्रहणशीलता उपजती है। इस परिवर्तनशील जगत के सारे रहस्य खुलने लगते हैं। मोह की दुरभि संधि मिटकर सत्य प्रकाशित होने लगता है।

ईश्वरत्व का समन्वय
प्रार्थना प्रयत्न और ईश्वरतत्व का सुंदर समन्वय है। मानवीय प्रयत्न अपने आप में अधूरे हैं क्योंकि पुरुषार्थ के साथ संयोग भी अपेक्षित है। यदि संयोग सिध्दि न हुई तो कामनाएं अपूर्ण ही रहती हैं। इसी तरह संयोग मिले और प्रयत्न न करें तो भी काम नहीं चलता। प्रार्थना से इन दोनों में मेल पैदा होता है। सुखी और समुन्नत जीवन का यही आधार है कि हम क्रियाशील भी रहें और दैवीय विधान से सुसंबध्द रहने का भी प्रयास करें। धन की आकांक्षा के लिये तो व्यवसाय और उद्यम करना होता है साथ ही उसके लिए अनुकूल परिस्थितियां भी चाहिए ही। जगह का मिलना, पूंजी लगाना, स्वामिभक्त और ईमानदार नौकर, कारोबार की सफलता के लिये चाहिये ही। यह सारी बातें संयोग पर अवलंबित हैं। प्रयत्न और संयोग का जहां मिलाप हुआ वहीं सुख होगा, वहीं सफलता भी होगी।

यह अनिवार्य नहीं कि प्रार्थना पूर्णतया निष्काम हो। सकाम प्रार्थनाओं का भी विधान है किन्तु सांसारिक कामनाओं के लिये की गयी प्रार्थना में वह तल्लीनता नहीं आ पाती जो परमात्मा तक अपना संदेश ले जा सके। ऐसी प्रार्थनाएं भोग के निविड़ में भटककर रह जाती है। परिणामतः समय का अपव्यय और शक्ति का दुरुपयोग ही होता है। परोपकार, आत्मकल्याण और जीवन लक्ष्य की प्राप्ति के लिये ही प्रार्थना का सदुपयोग होना चाहिये। ऐसी प्रार्थंनाओं में सजीवता होती है, चुंबकत्व होता है और परमात्मा को प्राप्त करने की प्रबल आकुलता होती है, ये कभी निष्फल नहीं जाती। सद्उद्देश्यों के लिए की गई हृदय, आत्मा की पुकार अनसुनी नहीं जाती। परमात्मा उसे जरूर पूरा करते हैं।

अभी तक जो शक्तियां मिलीं और जो मानव जीवन का सौभाग्य प्राप्त होता है, इसमें भी पूर्व भावनाओं की सौम्यता ही प्रतीत होती है। हमने उनका आश्रय छोड़ दिया होता तो अन्य जीवधारियों के समान हम भी कहीं भटक रहे होते किन्तु यह अभूतपूर्व संयोग मिलना निश्चय ही उनकी कृपा का फल है। प्राप्त परिस्थितियों का सदुपयोग तब है जब इन साधनों का उपयोग आत्मविकास में कर सकें। इसके लिये हमारा संपूर्ण जीवन एक प्रार्थना हो। हम अनन्य भाव से अपने आपको उस परमात्मा के प्रति समर्पित किए रहें और उनकी दुनिया को सुंदर और सरस बनाने के लिये अपने कर्तव्यों का यथा रीति पालन करते रहें।
हृदयहीन मुखर प्रार्थना नहीं चाहिए, जिसमें केवल स्वर का महत्व प्रकट होता है और प्रर्थना नहीं, वह तो विडंबना हुई, प्रार्थना वह होती है जो हृदय से निकल कर सारे आकाश को प्रभावित करती है और परमात्मा के हृदय में भी उथल-पुथल मचा कर रख देती है। हे ईश्वर, हे परमपिता परमेश्वर! सृष्टि के कण-कण में आपका स्पंदन है। ये सृष्टि आपसे ही है। पालक पोषक सब कुछ आप ही हैं। हमें अपनी शरण में ले लो, हमें अपनी छाया प्रदान करो। ऐसी प्रार्थना निष्काम, सच्ची और सजीव ही हो सकती है। वर्षा का जल गिरता है तो सारे धरती गीली हो जाती है। प्रार्थना के प्रभाव से परमात्मा का अंतःकरण द्रवित होता है और साधक की उपासना से अधिक परिणाम प्राप्त होता है। संत टेनीसन ने लिखा है-जितना संसार समझता है, प्रार्थना से उससे अधिक कार्य होता है। इसलिए अपनी प्रार्थना ऐसी हो-हम तेरी शरण में आए हैं तुझसे वह प्रकाश प्राप्त करना चाहते हैं, जिससे अंधकार में भटकते हुए मनुष्यों के दुःख और संताप दूर सकें।

 

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